Hindi Moral values Stories(Part-1)

 Hindi Moral values Stories 

 1.परिश्रम का मूल्य

राजा जनमेजय की दिनचर्या

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          प्राचीन समय की बात है। जनमेजय नामक एक राजा थे। जो अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। वे अक्सर वेश बदलकर राज्य में घूमते थे ताकि यह जान सकें कि उनकी प्रजा खुश है या नहीं और उनकी योजनाओं का सही लाभ लोगों को मिल रहा है या नहीं।

राजा का गाँव भ्रमण
         एक दिन राजा जनमेजय गाँव में घूम रहे थे। उन्होंने अपना वेश बदल रखा था ताकि कोई उन्हें पहचान न सके। उन्होंने देखा कि कुछ लड़के खेल रहे हैं। उनमें से एक लड़का राजा बना हुआ था और बाकी उसके मंत्री बने थे।

बालक कुलेश का अभिनय
        राजा का अभिनय कर रहा लड़का कुलेश था। वह अपने मंत्रियों से बोल रहा था, “मंत्रियों! जिस राज्य के कर्मचारी ऐशो-आराम में डूबे रहते हैं, वहां की प्रजा कभी सुखी नहीं रहती। राजा चाहे जितना अच्छा हो, लेकिन अगर कर्मचारी ईमानदारी से काम न करें तो प्रजा दुखी रहती है। हमें त्याग और मेहनत का जीवन जीना चाहिए, ताकि हमारी प्रजा खुशहाल रहे।”

          कुलेश की बातें सुनकर राजा जनमेजय बहुत प्रभावित हुए। वे कुलेश को अपने साथ राजधानी ले आए और उसे मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।

कुलेश की बुद्धिमानी
         कुलेश अपनी बुद्धि और मेहनत से राजा का भरोसा जीतने लगा। समय के साथ उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ीं और राजा ने उसे महामंत्री बना दिया। कुलेश ने राज्य के अधिकारियों और मंत्रियों के लिए नियम बनाए। हर अधिकारी को दिन में 10 घंटे काम करना जरूरी था। उन्होंने अधिकारियों की गैर-जरूरी आय के स्त्रोत बंद कर दिए। इससे राज्य की प्रजा के लिए अधिक धन बचने लगा और राज्य में खुशहाली आ गई।

षड्यंत्र
         लेकिन कुछ अधिकारी जिनकी विलासिता पर रोक लग गई थी। कुलेश से जलने लगे। वे उसे बदनाम करने के षड्यंत्र रचने लगे। उन्हें पता चला कि कुलेश के घर में एक खास कमरा है। जहाँ वह किसी को जाने नहीं देता। उन्होंने राजा को यह कहकर भड़काया कि कुलेश ने उस कमरे में अवैध संपत्ति छिपा रखी है।

जाँच और सचाई का खुलासा
        राजा जनमेजय ने सभासदों की बात मान ली और कुलेश के घर की जाँच करने पहुँच गए। उन्होंने उस कमरे को खोलने का आदेश दिया। जब दरवाजा खुला, तो सब हैरान रह गए। कमरे में केवल एक कुदाली एक लाठी और कुछ पुराने कपड़े रखे थे।

कुलेश का उत्तर
राजा ने पूछा, “कुलेश, ये सब क्या है?”

       कुलेश ने विनम्रता से जवाब दिया, “महाराज, जब आप मुझे गाँव से यहाँ लाए थे। तब मेरी संपत्ति यही थी। मैं इन्हें इसलिए संभालकर रखता हूँ। ताकि कभी घमंड न हो और यह याद रहे कि मैं कौन था। परिश्रम से मिली सफलता ही असली धन है और मैं इसे कभी नहीं भूल सकता।”

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कुलेश का त्याग
         यह कहकर कुलेश ने अपनी कुदाली और लाठी उठाई और अपने गाँव लौट गया। राजा जनमेजय को अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन अब उनके पास पछताने के सिवाय कोई उपाय नहीं था।

शिक्षा
यह कहानी हमें सिखाती है कि परिश्रम और सच्चाई का मूल्य संसार के हर धन और पद से बड़ा है। मेहनत और ईमानदारी से जो हासिल होता है। वही सच्चा सम्मान है

          2.चलना ही ज़िंदगी है

घड़ी की शिकायत
          एक रात आर्यन अपने कमरे में गहरी नींद में सो रहा था। कमरे में सन्नाटा था और बस घड़ी की "टिक-टिक" की आवाज़ गूंज रही थी। घड़ी की बड़ी सुई ने छोटी सुई से कहा, "कैसी हो?" छोटी सुई ने अंगड़ाई लेते हुए जवाब दिया, "मैं तो ठीक हूं लेकिन चलते-चलते तंग आ गई हूं। हर समय बस घूमते रहो। थकान हो गई है।"

          बड़ी सुई ने भी सहमति जताई, "बिल्कुल सही कहा। यहां शेरू (आर्यन का कुत्ता) आराम से सो रहा है और आर्यन तो जैसे घोड़े बेचकर सोता है। लेकिन हमें कभी आराम नहीं मिलता। क्यों न हम भी चलना बंद कर दें?"

चलना बंद करने का फैसला
        दोनों सुइयों ने आपस में तय कर लिया कि वे अब नहीं चलेंगी। "आर्यन को भी पता चलेगा कि हम कितनी मेहनत करती हैं," बड़ी सुई ने कहा। दोनों घड़ियां रुक गईं।

आर्यन की सुबह
         सुबह जब आर्यन की नींद खुली, तो सूरज की किरणें कमरे में आ चुकी थीं। उसने चौककर घड़ी की ओर देखा लेकिन घड़ी में अब भी रात के 12 बजे थे। परेशान होकर आर्यन ने अपनी मम्मी को पुकारा, "मम्मी! घड़ी बंद हो गई और मैं देर से उठा। अब मैं होमवर्क कैसे पूरा करूंगा?" घड़ी को कोसता हुआ आर्यन कमरे से बाहर चला गया।

घड़ी की मरम्मत
       आर्यन की मम्मी ने कहा, "परेशान मत हो, तुम्हारे पापा इसे ठीक करवा देंगे।" अगले दिन आर्यन के पापा घड़ी को दुकानदार के पास ले गए। दुकानदार ने घड़ी को खोलकर देखा और कहा, "घड़ी तो ठीक लग रही है, लेकिन चल क्यों नहीं रही, समझ नहीं आ रहा। शायद पुरानी हो गई है।"

आर्यन के पापा ने घड़ी को घर लाकर स्टोर में रख दिया। वह बक्से में कई पुरानी चीजों के साथ बंद हो गई।

बक्से में घड़ी का हाल
बक्से में अंधेरा और घुटन थी। छोटी सुई घबराई हुई बोली, "यहां दम घुट रहा है।" बड़ी सुई ने दु:खी होकर कहा, "हम किस जेल में आ गए? न रोशनी है, न ताजी हवा।"

          दोनों सुइयों को अब अपने पुराने दिन याद आने लगे, जब वे आर्यन के कमरे में मेज पर शान से रखी रहती थीं। आर्यन प्यार से उन्हें साफ करता था और हर कोई उनकी टिक-टिक की आवाज़ सुनता था। अब उन्हें एहसास हुआ कि चलते रहना ही असली खुशी है।

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घड़ी का फिर चलना
       अचानक दोनों सुइयां चलने लगीं। टिक-टिक की आवाज़ सुनकर आर्यन स्टोर रूम में आया और बक्सा खोला। उसने घड़ी को चलती देख खुशी-खुशी कहा, "अरे, यह तो ठीक हो गई!" उसने घड़ी को साफ किया और फिर से अपने कमरे में मेज पर रख दिया।

चलते रहने की सीख
        अब घड़ी की दोनों सुइयां खुशी-खुशी चल रही थीं। वे कह रही थीं, "चलते रहना ही ज़िंदगी है।"

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में रुकने का मतलब अपनी खुशियों और महत्व को खो देना है। मेहनत और निरंतरता से ही जीवन में सफलता और संतोष मिलता है

            3.आम का मौसम

गाँव का नेक किसान
        एक गाँव में एक किसान रहता था। वह नेकदिल और मददगार इंसान था। उसके चार बेटे थे और सब मिल-जुलकर खेती-बाड़ी करते थे। गाय-भैंस, खेत और घर—सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था। परिवार में सभी खुश थे।

किसान का बढ़ता उम्र
        समय के साथ किसान बूढ़ा हो गया। उसके बेटे समझदार और जिम्मेदार थे। एक दिन उन्होंने कहा, "पिताजी, अब आप आराम करें। हम सब संभाल लेंगे।" किसान ने बेटे की बात मान ली और घर पर शांतिपूर्वक रहने लगा।

आम का मौसम और गुठलियाँ
       आम का मौसम आया। गाँव के लोग आम खाकर गुठलियाँ फेंक देते थे। लेकिन दादाजी (किसान) रोज़ गाँव में घूमते और फेंकी हुई गुठलियाँ उठाकर गाँव के बाहर खेतों में गाड़ देते। यह देखकर उनके बेटे परेशान हो गए। उन्होंने सोचा, "पिताजी ये क्या कर रहे हैं? ये गुठलियाँ उठाकर क्यों गाड़ रहे हैं?"

        गाँव के लोग भी उन्हें देखकर हँसते और कहते, "बुज़ुर्ग की अकल चली गई है। अब कचरा जमा कर रहे हैं!" लेकिन दादाजी को किसी की परवाह नहीं थी। वे चुपचाप अपना काम करते रहे।

दादाजी का जुनून
      आम का मौसम खत्म हुआ, लेकिन दादाजी ने गुठलियों की देखभाल करना नहीं छोड़ा। वे जहाँ गुठलियाँ गाड़ते, वहाँ कूड़ा डालते और कभी-कभी पानी भी देते। गाँववाले और उनके बेटे इसे उनकी सनक मानते लेकिन दादाजी अपने काम में जुटे रहे।

दादाजी का जाना और उनकी विरासत
        एक दिन अचानक दादाजी बीमार पड़े और कुछ ही दिनों में चल बसे। उनके जाने के बाद परिवार और गाँव के लोग उन्हें धीरे-धीरे भूल गए।

गाँव में आम के पेड़
       कुछ साल बाद गाँव के चारों ओर आम के पेड़ बड़े हो गए। पेड़ों पर रसीले आम लटकने लगे। अब लोगों को समझ आया कि दादाजी क्या कर रहे थे। उन्होंने पूरे गाँव के लिए एक अमूल्य तोहफ़ा छोड़ दिया था। जो लोग कभी उनका मज़ाक उड़ाते थे। वे अब उनकी तारीफ करते नहीं थकते।

सीख
       दादाजी के काम ने सबको सिखाया कि भलाई के काम समय लेते हैं, लेकिन उनके नतीजे बहुत मीठे होते हैं। हमें भी जीवन में दूसरों की भलाई के लिए काम करना चाहिए। इससे दिल को सच्ची खुशी मिलती है।

         4.गड़ेरिया बना राजकुमार

       हंगरी देश के एक गांव में एक गड़ेरिया का परिवार रहता था। गड़ेरिया का बेटा कैरोली बहुत चतुर और समझदार था। वह हर सवाल का जवाब बड़ी आसानी से दे देता था। उसकी चतुराई की चर्चा धीरे-धीरे पूरे हंगरी में फैल गई। राजा को भी इस बात की खबर मिली।

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कैरोली को बुलावा
एक दिन राजा ने कैरोली को अपने दरबार में बुलाया। कैरोली अपनी बांसुरी लेकर दरबार में पहुंचा। उसने राजा को प्रणाम किया और एक ओर खड़ा हो गया।

बांसुरी सुनाने का आदेश
      राजा ने उसकी बांसुरी देखी और कहा, "तो तुम बांसुरी भी बजाते हो? पहले हमें बांसुरी सुनाओ, फिर तुम्हारी परीक्षा लेंगे। देखते हैं, तुम्हारी चतुराई की बातें कितनी सही हैं।"

कैरोली की बांसुरी
        कैरोली ने कहा, "जी महाराज!" और बांसुरी बजाने लगा। उसकी धुन इतनी मधुर थी कि राजा और दरबारी झूमने लगे। बांसुरी खत्म होने पर राजा ने कहा, "तुम्हें तीन सवालों के जवाब देने होंगे। अगर सबके सही जवाब दिए, तो तुम्हें राजकुमार की तरह महल में रखा जाएगा। लेकिन अगर कोई जवाब गलत हुआ तो तुम्हारी भेड़ों को जब्त कर लिया जाएगा।"

पहला सवाल
राजा ने पूछा, "सागर में कितनी बूंदें हैं, क्या तुम गिन सकते हो?"
       कैरोली ने कहा, "महाराज, सागर में बूंदें लगातार बढ़ती रहती हैं क्योंकि नदियां उसमें पानी डालती रहती हैं। अगर आप सैनिकों को नदियों का पानी रोकने का आदेश दें, तो मैं बूंदें गिन सकता हूं।"
राजा मुस्कराया और बोला, "बहुत अच्छा! तुमने पहली परीक्षा पास कर ली।"

दूसरा सवाल
       राजा ने दूसरा सवाल पूछा, "आकाश में कितने तारे हैं?"
कैरोली ने कागज और पेंसिल मंगवाई और दरबारियों से कागज पर बिंदु बनाने को कहा। जब सारे कागज बिंदुओं से भर गए, तो उसने कहा, "महाराज, इन कागजों में जितने बिंदु हैं, आकाश में उतने ही तारे हैं। आप इन्हें गिनवा सकते हैं।"
दरबारी परेशान हो गए लेकिन राजा हंस पड़ा। उसने कहा, "तुमने दूसरा सवाल भी हल कर लिया।"

तीसरा सवाल
      राजा ने आखिरी सवाल पूछा, "अनंत काल में कितने पल होते हैं?"
कैरोली सोचने लगा और बोला, "महाराज, हमारे देश से दूर एक जगह पर एक पहाड़ है। वह हीरे का बना है और बहुत बड़ा है। वहां एक चिड़िया आती है और अपनी चोंच उस पहाड़ पर रगड़ती है। जब चिड़िया उस पहाड़ को पूरी तरह घिस देगी, तब एक अनंत पल बीतेगा।"
राजा ने तालियां बजाईं और कहा, "शाबाश! तुमने यह सवाल भी हल कर लिया।"

कैरोली बना राजकुमार
        राजा ने कहा, "अब तुम मेरे साथ महल में रहोगे। मैं तुम्हें अपना राजकुमार बनाता हूं। तुम्हारे माता-पिता भी हमारे अतिथि बनकर महल में रह सकते हैं।"
इस तरह गड़ेरिया कैरोली अपनी बुद्धिमानी से राजकुमार बन गया और अपने माता-पिता के साथ खुशी-खुशी महल में रहने लगा।

        5.सोलोमन की समझदारी

यरूशलेम के राजा सोलोमन
       यरूशलेम के राजा सोलोमन अपनी बुद्धिमानी और समझदारी के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। शिवा देश की रानी उनकी बुद्धिमानी को परखना चाहती थीं।

फूलों की दो मालाएँ
      रानी ने दो मालाएँ बनाईं। एक माला असली फूलों की थी और दूसरी माला कागज के फूलों से बनाई गई थी। दोनों मालाएँ इतनी एक जैसी थीं कि यह पहचानना कठिन था कि कौन सी माला असली है।

राजा के सामने चुनौती
       रानी ने दोनों हाथों में एक-एक माला ली और राजा सोलोमन के दरबार में पहुंच गईं। उन्होंने राजा से कहा, "हे राजन, बिना अपनी जगह से उठे यह बताइए कि इन दोनों में से असली फूलों की माला कौन सी है।"

दरबार में उत्सुकता
      राजा सोलोमन ने दोनों मालाओं को ध्यान से देखा। दोनों इतनी असली लग रही थीं कि पहचानना कठिन था। दरबार में उपस्थित सभी लोग उत्सुकता से देख रहे थे कि राजा इसका उत्तर कैसे देंगे।

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सोलोमन का उपाय
      राजा सोलोमन कुछ देर तक सोचते रहे। फिर अचानक उनके दिमाग में एक विचार आया। उन्होंने अपने दरबारियों से कहा, "बगीचे के सामने वाली खिड़की खोल दो।" दरबारियों ने तुरंत खिड़की खोल दी।

मधुमक्खियों का उत्तर
        जैसे ही खिड़की खुली, बगीचे से कुछ मधुमक्खियां उड़ती हुई अंदर आ गईं। वे रानी के बाएं हाथ में पकड़ी माला के चारों ओर भिनभिनाने लगीं। यह देखकर सोलोमन मुस्कुराए और बोले, "हे रानी, मेरे बगीचे की मधुमक्खियां बता रही हैं कि आपके बाएं हाथ में जो माला है। वही असली फूलों की माला है।"

रानी की प्रशंसा
      रानी सोलोमन की बुद्धिमानी देखकर बहुत प्रभावित हुईं। उन्होंने झुककर कहा, "हे राजन, आप वास्तव में बहुत बुद्धिमान हैं। आपका उत्तर बिल्कुल सही है।"
सभी दरबारियों ने भी राजा सोलोमन की समझदारी की जमकर प्रशंसा की।
            6. तराजू चूहे खा गई

धनीराम का व्यापार
         एक नगर में धनीराम नाम का व्यापारी रहता था। वह बहुत अमीर था लेकिन कर्ज में डूब गया। उसने सोचा कि कहीं और जाकर व्यापार करूं, शायद किस्मत बदल जाए। उसने अपनी सारी संपत्ति बेचकर कर्ज चुका दिया। बस लोहे का एक तराजू बचा।

तराजू मित्र को सौंपना
          धनीराम ने सोचा कि तराजू को बेचना सही नहीं है। इसलिए उसने उसे अपने मित्र सोहनलाल के पास रखने का फैसला किया। वह सोहनलाल के पास गया और बोला, "मित्र, मैं दूसरे नगर जा रहा हूं। यह तराजू तुम्हारे पास सुरक्षित रख दो। जब लौटूंगा, तो ले जाऊंगा।"
सोहनलाल ने कहा, "निश्चिंत रहो, तुम्हारी चीज सुरक्षित रहेगी। जब चाहो, ले जाना।"

धनीराम की वापसी
          कई वर्षों बाद धनीराम ने बहुत सारा धन कमाया और अपने नगर लौट आया। उसने सोचा, पहले सोहनलाल से मिलकर अपना तराजू ले लूं। वह सोहनलाल के पास गया और हाल-चाल के बाद तराजू लौटाने को कहा।

"तराजू चूहे खा गए"
         सोहनलाल ने गंभीर चेहरा बनाते हुए कहा, "मित्र, तुम्हारा तराजू तहखाने में रखा था। लेकिन पिछले साल चूहे उसे खा गए। मुझे बहुत दुख है।"धनीराम समझ गया कि सोहनलाल झूठ बोल रहा है। उसने बिना गुस्सा किए कहा, "कोई बात नहीं, मित्र। इसमें तुम्हारा क्या दोष! अब मैं नदी में स्नान करने जा रहा हूं। अगर तुम्हारा बेटा रामू साथ आ जाए। तो मेरे कपड़े रखवाने में मदद करेगा।"
सोहनलाल ने सोचा, मामला खत्म हो गया। उसने रामू को धनीराम के साथ भेज दिया।

         कुछ समय बाद, धनीराम अकेला वापस आया। सोहनलाल ने तुरंत पूछा, "रामू कहां है?"
धनीराम ने कहा, "मुझे बहुत दु:ख है। जब हम नदी की ओर जा रहे थे, तब एक बाज रामू को उठा ले गया।"
सोहनलाल गुस्से से लाल हो गया। उसने चिल्लाते हुए कहा, "तुम झूठ बोल रहे हो! मेरा बेटा वापस करो, वरना मैं अदालत जाऊंगा।"

नगर सेठ के पास शिकायत
        दोनों झगड़ते हुए नगर सेठ के पास पहुंचे। सोहनलाल ने अपनी बात बताई। नगर सेठ ने हैरानी से पूछा, "भला बाज किसी बच्चे को कैसे उठा सकता है?"
धनीराम ने तुरंत जवाब दिया, "श्रीमान, जब चूहे लोहे का तराजू खा सकते हैं तो बाज बच्चे को भी उठा सकता है।"

सच्चाई का सामना
          नगर सेठ ने दोनों की बातें सुनीं और समझ गया कि सोहनलाल झूठ बोल रहा है। उसने सोहनलाल को आदेश दिया कि वह तुरंत तराजू वापस करे और धनीराम को रामू लौटाने को कहा।
थोड़ी देर बाद सोहनलाल तराजू लेकर आया और धनीराम ने रामू वापस कर दिया।

जैसे को तैसा
इस तरह धनीराम ने अपनी चतुराई से न केवल अपना तराजू वापस लिया बल्कि सोहनलाल को भी सबक सिखा दिया। इसे ही कहते हैं, "जैसे को तैसा।"
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       7. मंत्री का भगवान में विश्वास


           एक बार एक राजा था जिसका मंत्री भगवान का परम भक्त था। मंत्री हमेशा यही कहता, "भगवान की बड़ी कृपा है।"एक दिन राजा के बेटे की मृत्यु हो गई। मंत्री ने यह सुनते ही कहा, "भगवान की बड़ी कृपा है।" राजा को यह बात बहुत बुरी लगी पर उसने कुछ नहीं कहा।
         कुछ दिनों बाद, राजा की पत्नी की मृत्यु हो गई। मंत्री ने फिर कहा, "भगवान की बड़ी कृपा है।" अब राजा का गुस्सा बढ़ने लगा लेकिन उसने खुद को शांत रखा।

            एक दिन राजा के लिए एक नई तलवार बनी। धार की परीक्षा करने के लिए उसने अपनी उंगली तलवार पर रख दी और उसकी एक उंगली कट गई।
मंत्री ने तुरंत कहा, "भगवान की बड़ी कृपा है।"
यह सुनकर राजा का गुस्सा फूट पड़ा। उसने मंत्री को राज्य से बाहर निकलने का आदेश दिया और कहा, "तुम मेरे राज्य में अन्न-जल ग्रहण मत करना।"
मंत्री ने हंसते हुए कहा, "भगवान की बड़ी कृपा है।"

जंगल में शिकार
         कुछ समय बाद, राजा शिकार करने जंगल गया। शिकार करते-करते वह अपने साथियों से बहुत दूर निकल गया और एक डाकुओं के गिरोह के पास जा पहुंचा।
उस दिन डाकू काली देवी को खुश करने के लिए एक मनुष्य की बलि देने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने राजा को पकड़ लिया और बलि के लिए बांध दिया।

राजा की जांच
            डाकुओं के पुरोहित ने राजा से सवाल किया, "तुम्हारा बेटा जीवित है?"राजा ने कहा, "नहीं, वह मर गया।"पुरोहित ने फिर पूछा, "तुम्हारी पत्नी जीवित है?"
राजा ने जवाब दिया, "नहीं, वह भी मर चुकी है।"
पुरोहित ने कहा, "यह तो आधा अंग वाला है। यह बलि के योग्य नहीं है। पर शायद यह झूठ बोल रहा हो।"

           पुरोहित ने राजा के शरीर की जांच की और उसकी कटी हुई उंगली देखी। उसने घोषणा की, "यह व्यक्ति अंग-भंग है। इसे बलि नहीं दी जा सकती। इसे छोड़ दो।"
डाकुओं ने राजा को छोड़ दिया।

राजा का पश्चाताप
       राजा अपने महल लौट आया और तुरंत अपने सैनिकों को मंत्री को वापस लाने का आदेश दिया। उसने कहा, "जब तक मंत्री वापस नहीं आएगा, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा।"
सैनिकों ने मंत्री को ढूंढ निकाला और उसे महल में लाए।

भगवान की कृपा का रहस्य
         मंत्री राजा के सामने आया। राजा ने उसे आदरपूर्वक बैठाया और कहा, "मैंने तुम्हें गलत समझा। अब मुझे समझ आया कि भगवान ने मेरी कटी हुई उंगली के माध्यम से मुझे बचाया। लेकिन जब मैंने तुम्हें राज्य से निकाला तब तुमने कहा था 'भगवान की बड़ी कृपा है।' उसका अर्थ अब भी मेरी समझ से बाहर है।"

         मंत्री मुस्कुराकर बोला, "महाराज, जब आप शिकार पर जाते थे तो मैं हमेशा आपके साथ होता था। अगर इस बार भी मैं आपके साथ होता तो डाकू मुझे भी पकड़ लेते। आपकी उंगली कटने की वजह से आप बच गए पर मैं तो पूरी तरह स्वस्थ था। उस दिन मेरी बलि निश्चित थी।
भगवान की कृपा से मैं आपके साथ नहीं था और इस कारण मेरा जीवन बच गया। यही भगवान की कृपा है।"

निष्कर्ष
        राजा ने अपनी भूल के लिए मंत्री से माफी मांगी और समझा कि हर परिस्थिति में भगवान की कृपा होती है। कठिन समय में भी हमें धैर्य और विश्वास बनाए रखना चाहिए।

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       8. चाणक्य की चतुराई

एक दुखी किसान की कहानी
           एक बार सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में एक बूढ़ा किसान रोते हुए आया। वह बोला, "महाराज, मैं तो लुट गया हूं, मेरा सारा धन मेरे मित्र ने हड़प लिया।"
राजा ने शांतिपूर्वक पूछा, "क्या हुआ? साफ-साफ बताओ।"
         किसान ने कहा, "महाराज, मेरा नाम रामदास है। मैं एक गरीब किसान हूं। कुछ समय पहले मैं तीर्थ यात्रा पर गया था। जाते समय मैंने अपना सारा धन अपने मित्र के पास रखा था। मैंने उससे कहा था कि यात्रा से लौटकर अपना धन ले लूंगा। लेकिन जब मैं वापस आया, तो वह मुझे पहचानता भी नहीं था। उसने कहा, 'कौन सा धन? मैंने तुम्हें पहले कभी देखा ही नहीं!' महाराज, अब मैं क्या करूं? मुझे न्याय चाहिए।"

धन की जानकारी
          राजा ने पूछा, "तुम्हारे पास कितना धन था?"
किसान बोला, "पाँच हजार सिक्के थे।"
राजा ने फिर पूछा, "क्या तुम्हारे पास कोई सबूत है? क्या कोई गवाह है?"किसान सिर झुका कर बोला, "महाराज, मैंने अपने मित्र पर बहुत विश्वास किया था इसलिए कोई लिखित दस्तावेज नहीं बनाया। उस समय मंदिर के पास कोई आता-जाता नहीं था, और ना ही वहां कोई देख रहा था।"

       किसान का मित्र दरबार में राजा ने आदेश दिया कि किसान के मित्र को दरबार में लाया जाए।
जब किसान का मित्र दरबार में आया, तो राजा ने पूछा, "क्या यह सच है कि तुमने रामदास का धन लिया था?"
किसान का मित्र बोला, "महाराज, यह आदमी झूठ बोल रहा है। मैं इसे जानता तक नहीं। किसी अनजान व्यक्ति का धन क्यों रखता? और बिना लिखित दस्तावेज के कैसे मैं उसका धन रख सकता हूं?"

चाणक्य का चतुर निर्णय
         राजा ने अपनी नज़र महामंत्री चाणक्य की ओर डाली, और चाणक्य ने कहा, "महाराज, आप इस मामले का निर्णय मुझ पर छोड़ दें, मैं खुद इसका हल निकालूंगा।"
           अगले दिन दोनों को दरबार में बुलाया गया। चाणक्य ने किसान से पूछा, "तुमने उस स्थान का नाम क्या बताया था जहां तुमने धन दिया था?"
        किसान बोला, "महादेव मंदिर के पास पीपल का एक पेड़ था, उसी के चबूतरे पर मैंने धन दिया था।"
चाणक्य मुस्कुराए और बोले, "यह पेड़ तो गवाह है। पेड़ को बुलाकर लाओ, वह गवाही देगा।"
किसान ने सोचा, यह तो एक अजीब मांग है, लेकिन चुपचाप पेड़ को लाने चला गया।

किसान का मित्र परेशान
         किसान कई घंटे तक नहीं लौटा। उसका मित्र परेशान होकर राजा से बोला, "महाराज, मंदिर तो दूर नहीं है, और मैं बीस चक्कर लगा सकता था, लेकिन यह बूढ़ा आदमी अब तक नहीं आया। वह तो झूठा है, घर जाकर आराम कर रहा होगा।"
        चाणक्य ने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, तुम तो पहले कहते थे कि तुम उस मंदिर को जानते ही नहीं। अब कैसे कह रहे हो कि मंदिर पास है? इससे साबित होता है कि किसान सच बोल रहा है, और तुम झूठ बोल रहे हो।"

         किसान का मित्र अपराध स्वीकार करता है
राजा के सैनिकों ने चाणक्य के आदेश पर किसान के मित्र को घेर लिया। अब वह घबराया हुआ था। उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और किसान का धन वापस करने का वादा किया।

चाणक्य ने न्याय किया
          थोड़ी देर बाद किसान थका-हारा दरबार में आया। उसने कहा, "महोदय, मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन वह पेड़ गवाही देने नहीं आया।"
चाणक्य हंसते हुए बोले, "अरे, वह पेड़ पहले ही गवाही दे चुका है। तुम्हारा मित्र अब मान चुका है कि उसने तुम्हारा धन लिया था और अब वह उसे वापस करेगा।"
चाणक्य की बुद्धिमानी से मामला हल हो गया, और किसान का न्याय हो गया।
निष्कर्ष
       चाणक्य ने अपनी बुद्धि और चतुराई से यह साबित कर दिया कि सच्चाई हमेशा सामने आती है, और न्याय जरूर होता है।

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       9.सत्य का प्रभाव

       बहुत समय पहले एक डाकू था जो दिन-रात डाके डालता, लोगों को मारता और उनके पैसे, गहने, बर्तन, कपड़े लूटकर भाग जाता था। वह डाकू कई पाप कर चुका था और उसका दिल कड़ा हो चुका था। एक दिन वह घूमते-घूमते एक स्थान पर पहुँचा, जहां एक कथा हो रही थी। वहां पर कई बड़े-बड़े साधु और संत बैठे थे। बहुत सारे लोग अपने पापों को कम करने के लिए आए थे। वहां कथा के साथ-साथ भंडारा भी चल रहा था, जिसमें सभी को भोजन दिया जा रहा था।

भोजन और सत्संग का प्रभाव
          डाकू को बहुत जोर से भूख लगी थी, तो वह भोजन करने बैठ गया और साथ ही कथा भी सुनने लगा। वह सोच रहा था कि जब लोग कथा खत्म करके घर लौटेंगे, तो रात में उनका लूटने का अच्छा मौका मिलेगा। लेकिन वहां बैठकर उसने महसूस किया कि इन साधुओं के प्रवचन में कुछ खास बात थी। एक संत महाराज ने कहा था, "जो पाप करते हैं, उनकी सजा मृत्यु के बाद जरूर मिलती है।"
       यह सुनकर डाकू घबरा गया और उसे यह एहसास हुआ कि अगर उसने अपने पापों का प्रायश्चित नहीं किया, तो उसे बहुत बड़ी सजा मिलेगी।

संत से मदद की याचना
          डाकू को डर लगने लगा और वह संत के पास गया। वह बोला, "महाराज, मैं डाकू हूं और डाका डालना मेरी आदत बन गई है, लेकिन क्या मेरे पापों का कोई उपाय है?" संत ने थोड़ी देर सोचकर जवाब दिया, "तुम्हें सिर्फ एक काम करना है—झूठ बोलना बंद करो।" डाकू ने संत की बात मानी और उसने ठान लिया कि वह अब झूठ नहीं बोलेगा।

झूठ बोलने से बचा डाकू
           इसके बाद, डाकू ने अपने पुराने काम को फिर से शुरू करने का मन बनाया। वह राजा के महल में डाका डालने के लिए चला गया। महल के पास पहरेदार ने डाकू से पूछा, "तुम कौन हो?"डाकू ने जो पहले हमेशा झूठ बोलकर बचता था, इस बार उसने सच बोलते हुए कहा, "मैं एक डाकू हूं।"
            पहरेदार ने सोचा कि शायद यह कोई राजमहल का आदमी है, जो थोड़ा गुस्से में है। इसलिए वह उसे बिना किसी सवाल के अंदर जाने दिया। डाकू महल में दाखिल हुआ और एक बड़ा संदूक लेकर बाहर आ गया। पहरेदार ने पूछा, "तुम क्या ले जा रहे हो?"डाकू ने बिना झूठ बोले कहा, "यह जवाहरात का संदूक है।"
पहरेदार ने फिर पूछा, "तुम किससे पूछकर इसे ले जा रहे हो?"
         डाकू को अब झूठ बोलने की आदत नहीं थी, इसलिए उसने सीधे-साधे शब्दों में कहा, "मैं इसे ले जा रहा हूं।"
पहरेदार ने उसे जाने दिया, क्योंकि वह सच्चाई बोल रहा था। डाकू ने महसूस किया कि सच बोलने का एक अद्भुत प्रभाव है, क्योंकि अगर वह झूठ बोलता, तो पहरेदार उसे कभी अंदर जाने नहीं देता।

डाकू का मन बदल गया
         डाकू का मन अब पूरी तरह बदल चुका था। वह सोचने लगा कि अगर वह अब डाका डालकर धन ले भी आता है, तो उसे कोई डर नहीं है। उसका विश्वास अब सत्य पर था, और उसने ठान लिया कि अब वह डाका डालने के काम से बाहर निकलने की कोशिश करेगा।

सच्चाई का खुलासा
         सुबह होते ही महल में तहलका मच गया। राजकोष से जवाहरात की पेटी गायब थी। राजा ने तुरंत अपने सैनिकों को डाकू को पकड़ने भेजा। कुछ ही समय में सैनिकों ने डाकू को पकड़ लिया और राजा के सामने खड़ा कर दिया। राजा ने डाकू से पूछा, "तुमने जवाहरात की पेटी क्यों चुराई?"
        डाकू ने बिना किसी डर के सब कुछ सच-सच बता दिया। उसने कहा, "मैंने जवाहरात की पेटी चुराई थी, लेकिन मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया।"
राजा डाकू की ईमानदारी से खुश हो गया और उसने उसे अपना प्रधान रक्षक बना लिया। डाकू अब चोरी करने की बजाय राजा के महल का रखवाला बन गया।

शिक्षा
        इस घटना से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब हम अपने पापों को त्यागकर सत्य का पालन करते हैं, तो हमारी जिंदगी में भी बदलाव आता है। सत्य हमेशा किसी न किसी रूप में हमारे पक्ष में काम करता है।

    10. सत्यवादी हरिश्चंद्र

        बहुत समय पहले एक राजा थे, जिनका नाम हरिश्चंद्र था। वे अपनी प्रजा में सत्य, दया और ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी पत्नी का नाम तारामती और पुत्र का नाम रोहिताश था। एक दिन, देवों के राजा इंद्र की प्रेरणा से मुनि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता और दानशीलता की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

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स्वप्न में परीक्षा
       मुनि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र के स्वप्न में आकर उनसे उनका राजपाट दान करने को कहा। राजा हरिश्चंद्र ने बिना किसी संकोच के, स्वप्न में ही अपना सारा राजपाट दान कर दिया। इस प्रकार मुनि विश्वामित्र को उनकी दानशीलता का प्रमाण मिल गया।

मुनि विश्वामित्र का दरबार में आना
        इसके बाद, मुनि विश्वामित्र राजा के दरबार में आए और राजा से दक्षिणा स्वरूप एक हजार स्वर्ण मुद्राएं मांगी। अब राजा के पास दक्षिणा देने के लिए कुछ भी नहीं था, क्योंकि उन्होंने पहले ही अपना सारा संपत्ति दान कर दी थी। मुनि विश्वामित्र ने कहा कि वह बिना दक्षिणा के वापस नहीं जाएंगे। राजा हरिश्चंद्र के लिए यह स्थिति मुश्किल हो गई।

राजा का साहस और त्याग
       राजा हरिश्चंद्र ने कोई रास्ता न पाकर स्वयं को बेचने का निर्णय लिया। एक ब्राह्मण ने उनकी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिताश को पाँच सौ स्वर्ण मुद्राओं के बदले खरीद लिया। लेकिन अभी भी मुनि के लिए पाँच सौ स्वर्ण मुद्राओं की कमी थी। इसके लिए राजा हरिश्चंद्र ने स्वयं को श्मशान घाट के कर वसूलने वाले व्यक्ति को पाँच सौ स्वर्ण मुद्राओं में बेच दिया।

तारामती और रोहिताश का दुख
       अब राजा हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती ब्राह्मण के घर में चूल्हा-चौका करती थी, और उनका बेटा रोहिताश फुलवारी से फूल, पत्तियां और लकड़ी इकट्ठा करता था। एक दिन, जब रोहिताश फुलवारी में फूल तोड़ने गया, तो एक विषैले सांप ने उसे डस लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। तारामती को अपने बेटे का शव लेकर श्मशान जाना पड़ा।

सत्य और धैर्य की परीक्षा
         तारामती अपने बेटे की मृत्यु के बाद श्मशान घाट में आई और राजा हरिश्चंद्र को देखा। राजा हरिश्चंद्र उसे पहचान गए लेकिन उस समय भी उन्होंने सत्य और धैर्य का पालन किया। उन्होंने तारामती से शव को दाह करने के लिए कर मांगा। तारामती के पास कर देने के लिए कुछ भी नहीं था। वह बहुत दुखी और विवश हो गई, और उसने अपनी साड़ी का आधा हिस्सा कर के रूप में देने का मन बना लिया।

देवताओं की कृपा
         तभी मुनि विश्वामित्र और देवता वहां प्रकट हुए। उन्होंने हरिश्चंद्र और तारामती की सत्यनिष्ठा और धैर्य की सराहना की और उन पर पुष्प बरसाए। मुनि विश्वामित्र के आशीर्वाद से रोहिताश पुनर्जीवित हो गया।

राजा को राजपाट वापस मिलना
       राजा हरिश्चंद्र को उनका राजपाट वापस मिल गया। उनकी सत्य और ईमानदारी की वजह से उन्हें सब कुछ वापस मिल गया। राजा हरिश्चंद्र, उनकी पत्नी तारामती और उनका पुत्र रोहिताश सुखी और समृद्ध जीवन जीने लगे।

शिक्षा
        इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सत्य और धैर्य का पालन करना जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है। किसी भी कठिनाई या संकट के समय, अगर हम सत्य का साथ देते हैं, तो अंततः हमें सफलता और सम्मान मिलता है।

     11 . हाजिर दिमागी का कमाल

        रोहन रोज़ की तरह आज भी स्कूल जाने के लिए तैयार हुआ। वह पांचवी कक्षा का छात्र था और उसके गाँव का स्कूल शहर से दूर था। उसे स्कूल जाने के लिए पास के शहर में जाना पड़ता था। रोहन के साथ गाँव के कई अन्य बच्चे भी पढ़ाई के लिए शहर जाते थे। रास्ता सुनसान था और रास्ते में घना जंगल था। जंगल के दूसरी ओर मंगल सिंह नामक एक डाकू रहता था, जिसका आतंक दूर-दूर तक फैला था। एक दिन, सभी बच्चे स्कूल की बस में शहर जा रहे थे।

         तभी अचानक "बचाओ-बचाओ" की आवाज़ सुनाई दी। बच्चों ने खिड़की से देखा कि कुछ लोग उनके गाँव के अमीर चंद सेठ को घेरकर खड़े हैं। अमीर चंद सेठ, यानी रोहन के पिता, मुश्किल में थे। रोहन ने देखा और घबराकर चिल्लाया, "ड्राइवर भैया, गाड़ी रोकिए, मेरे पिताजी को डाकुओं ने घेर लिया है!" ड्राइवर ने मंगल सिंह का नाम सुना था और सोचा कि ये जरूर वही डाकू होगा, तो उसने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी।

         रोहन को एक तरकीब सूझी। उसने कागज पर कुछ लिखा और अपने मित्र पंकज को पकड़ते हुए ड्राइवर से विनती की, "कृपया बस रोककर मुझे उतार दो।" ड्राइवर ने उसकी बात मान ली और बस से उतरकर वह तेजी से उस दिशा में भागा, जहां उसके पिताजी डाकुओं से घिरे थे। पंकज ने कागज खोला और पढ़ा:

"प्रिय पंकज, तुम स्कूल जाकर प्रधानाचार्य जी को बता देना कि इस स्थान पर मेरे पिताजी को डाकुओं ने घेर लिया है, ताकि वे पुलिस को सूचित कर सकें। इस बीच, मैं डाकुओं से बातों में लगाता हूँ।"

        जब रोहन अपने पिताजी के पास पहुँचा, तो उसके पिताजी ने कहा, "अरे, रोहन तुम! तुम यहां क्यों आए?" रोहन ने कहा, "पिताजी, मुझे आप चिंता न करें। मैं डाकुओं का सामना कर लूंगा।" डाकू उसे घूरने लगे और एक डाकू ने कहा, "अबे लड़के! तू हमारा क्या बिगाड़ लेगा?" और उसने रोहन का गला पकड़ लिया। तब रोहन के पिताजी बोले, "बेटा, ये बहुत खतरनाक लोग हैं, तुम यहाँ से भाग जाओ।" पर रोहन ने कहा, "पिताजी, मैं इनका काम तमाम कर दूँगा, चिंता न करें।"

       तभी रोहन ने कहा, "मैंने पुलिस को सूचित कर दिया है। पुलिस यहाँ आती ही होगी।" पुलिस का नाम सुनते ही डाकू डर गए और भागने लगे। तभी पुलिस की गाड़ी आ गई और डाकुओं को पकड़ लिया। रोहन की बहादुरी के लिए उसे सरकार की तरफ से इनाम मिला।

       12.भाग्य बड़ा या कर्म

         प्राचीन काल की बात है, एक बार लक्ष्मी जी और सरस्वती जी के बीच एक बहस छिड़ गई। लक्ष्मी जी ने कहा, "मेरे आशीर्वाद के सामने कर्मों का क्या महत्व?" लेकिन सरस्वती जी अपनी बात पर अड़ी रहीं, "हर किसी को अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है।" दोनों में लंबी बहस हुई, तब लक्ष्मी जी ने एक शर्त रखी, "ठीक है, मेरे मंदिर में मूर्ति के पीछे छिप जाती हूं। जो भी सबसे पहले धन की इच्छा से आएगा, मैं उसे धन दूंगी।"

         सरस्वती जी ने कहा, "ठीक है, आपको तीन मौके मिलेंगे।" दोनों देवियाँ मंदिर में छिप गईं। पास के गाँव में एक लकड़हारा सहदेव रहता था, जो गरीबी में जीवन यापन कर रहा था। उसकी पत्नी कल्याणी और दो बच्चे थे। हाल ही में लगातार बारिश के कारण वह लकड़ी नहीं काट सका था, और घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। जब बारिश रुक गई, तो सहदेव को अपनी पत्नी ने लकड़ी काटने भेजा। सहदेव जंगल से कुछ लकड़ियाँ और फूल लेकर लक्ष्मी जी के मंदिर पहुँचा।

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         वह मंदिर में पूजा करने लगा और धन के लिए प्रार्थना करने लगा। लक्ष्मी जी ने देखा और सोने के मोहरे उसकी ओर गिरने लगे। सहदेव हैरान था लेकिन उसने घड़े में मोहरे भरकर घर लौटते समय अपनी पत्नी को आवाज़ दी, "देखो, मैंने क्या पाया है!" लेकिन कल्याणी को उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और वह मानी नहीं।

          अगले दिन सहदेव फिर मंदिर गया और अपने दुखों को बताया। इस बार लक्ष्मी जी ने उसे अपनी मणि का हार दिया। सहदेव ने सोचा कि शायद उसने सही तरीका नहीं अपनाया था, इसलिए धन खो दिया था। वह नदी में नहाने गया और हार जेब में रखकर नदी में उतरा। पर, एक मछली ने उसे खाना समझा और हार को खा लिया। सहदेव बहुत दुखी हुआ।

        फिर लक्ष्मी जी और सरस्वती जी ने सहदेव के बारे में चर्चा की। लक्ष्मी जी ने एक और पत्थर दिया, जो बहुत कीमती था। सहदेव खुश होकर घर की ओर भागा, लेकिन रास्ते में एक चील ने पत्थर छीन लिया। सहदेव सिर पीट कर रह गया। फिर अंत में, सहदेव ने मंदिर में जाकर रो-रोकर अपना दुख सुनाया।

          लक्ष्मी जी और सरस्वती जी ने समझाया कि सहदेव के कर्म अभी पूरे नहीं हुए थे लेकिन कुछ समय बाद उसे मजदूरी के बदले कुछ पैसे मिले और उसके घर में खुशी लौटी। इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्मों का फल ही असली होता है, और भाग्य पर विश्वास करना चाहिए।

13. एकता का फल

        एक छोटे से गाँव में बहुत कम पेड़-पौधे थे और लकड़ी की कमी के कारण लोग खाना बनाने में मुश्किल का सामना करते थे। गाँव के पास एक छोटा सा बाजार था जहां लोग लकड़ी और उपले खरीदने जाते थे। दो-तीन दिनों से लगातार बारिश हो रही थी और कोई भी लकड़ी बेचने नहीं आ रहा था। इस कारण गाँव के दो भाई अपनी माँ के लिए लकड़ी ढूंढ़ने निकले।

           वे अपने पिता के लगाए आम के पेड़ के नीचे गए और देखा कि एक मोटी सूखी लकड़ी की डाल नीचे गिरी पड़ी थी। दोनों खुश हुए, लेकिन बड़ी लकड़ी को उठाने में असमंजस में थे। छोटे भाई ने देखा कि कुछ चींटियाँ एक बड़े कीड़े को मिलकर ले जा रही हैं। उसने बड़े भाई से कहा, "देखो, ये चींटियाँ मिलकर उस कीड़े को ले जा रही हैं, हम भी मिलकर यह लकड़ी उठा सकते हैं।"

          बड़ा भाई गाँव से अपने दोस्तों को बुला लाया और सभी बच्चों ने मिलकर भारी लकड़ी को उठाया और घर पहुँचाया। उनकी माँ ने सभी बच्चों को धन्यवाद दिया और कहा, "एकता में बहुत ताकत होती है, अगर हम सब मिलकर काम करें तो हम बड़े से बड़ा काम भी आसान बना सकते हैं।"

     14. वीर बालक प्रताप

यह कहानी चित्तौड़ के एक छोटे से राजपूत बालक की है, जिसका नाम प्रताप था। वह गाना-बजाना बहुत पसंद करता था, लेकिन उसके माता-पिता और बाकी लोग उसे ताने मारते थे। वे कहते थे, "तुम एक राजपूत के लड़के हो, तुम्हें तलवार चलानी चाहिए, लेकिन तुम्हें यह नहीं आता।"

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देश पर संकट

एक दिन, जब देश पर संकट आया, तो सब लोग प्रताप से पूछते थे, "तुम देश की सेवा कैसे करोगे? तुम तो संगीत में व्यस्त हो, तलवार चलाना नहीं जानते, तो देश की रक्षा कैसे कर पाओगे?" प्रताप ने जवाब दिया, "देश की सेवा करने के लिए फौज में भर्ती होना जरूरी नहीं है। संगीत से भी देश की सेवा की जा सकती है। मैं समय आने पर देश की सेवा करूंगा।"

प्रताप की बात पर शक

लोगों को प्रताप की बात सही नहीं लगी। वे उसे डरपोक समझते थे और कहते थे कि वह बस बकवास कर रहा है। उस समय दिल्ली में मुगलों का राज था। कुछ समय बाद, मुगलों की एक बहुत बड़ी सेना ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। लेकिन चित्तौड़ का किला बहुत मजबूत था। मुगलों की सेना बार-बार किले की दीवारों से टकराकर पीछे हटती थी।

चित्तौड़ के शूरवीर राजपूत

चित्तौड़ के सभी शूरवीर राजपूत महाराणा प्रताप की सेना में भर्ती हो गए थे। लेकिन प्रताप बालक था, और उसे अस्त्र-शस्त्र चलाने का कोई अनुभव नहीं था, इसलिए वह सेना में नहीं गया। फिर उसने एक और तरीका अपनाया। वह किले के चारों ओर घूमता और वीरता से भरे गीत गाता, ताकि युवकों को प्रेरित कर सके और वे सेना में भर्ती हों।

वीरता से भरे गीत

प्रताप के गीतों का असर हुआ, और महाराणा की सेना बहुत बड़ी हो गई। एक दिन, जब वह एक बस्ती में गीत गा रहा था, एक मुगल सैनिक ने छिपकर उसका गीत सुना। जब प्रताप लौटने लगा, तो उस मुगली सैनिक ने उसे पकड़ लिया और अपने सेनापति के पास ले गया।

मुगल सेनापति का चालाकी

मुगल सेनापति ने प्रताप को देखा और कहा, "लड़के, अब तुम्हें हमारे लिए गीत गाना होगा।" प्रताप ने कहा, "मेरा काम तो गीत गाना है, जब आप कहें, मैं गाने को तैयार हूं।"

मुगल सेनापति ने रात को अपनी सेना तैयार की और चित्तौड़ किले के पास पहुंचा। उसने प्रताप को किले के दरवाजे पर खड़ा कर दिया और कहा, "अब तुम गीत गाओ, ताकि किले का फाटक खुल जाए।" उसका विचार था कि प्रताप के गीत सुनकर किले के लोग समझेंगे कि कोई मित्र सेना मदद के लिए आई है और वे किले का द्वार खोल देंगे।

प्रताप का साहस

लेकिन प्रताप ने मुगलों की चाल समझ ली। उसने ऐसा गीत गाया कि राजपूतों को चेतावनी मिल गई। उन्होंने किले के अंदर से मुगलों पर पत्थर और तीरों की वर्षा कर दी। बहुत से मुगल सैनिक मारे गए। मुगल सेनापति ने क्रोधित होकर पूछा, "लड़के, तू क्या गा रहा है?" प्रताप ने निर्भीकता से कहा, "मैं अपने वीरों से कह रहा हूं कि शत्रु किले के द्वार पर खड़ा है। धोखे में मत आओ, किले का द्वार मत खोलो। पत्थर मारो और शत्रु को हराकर वापस भेज दो।"

प्रताप की शहादत

मुगल सेनापति ने गुस्से में आकर एक ही वार में प्रताप का सिर काट दिया। लेकिन प्रताप ने जो किया, उससे किले के अंदर के राजपूत बच गए। मुगलों को वापस लौटना पड़ा। दूसरे दिन, राजपूतों को प्रताप की लाश मिली। देश की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वाले उस वीर बालक को महाराणा प्रताप ने खुद अपनी हाथों से चिता पर रखा और श्रद्धांजलि अर्पित की।

           इन कहानियों से यह सिखने को मिलता है कि दिमागी हल, कर्म और एकता हमेशा सफलता दिलाते हैं।

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