Saint Sepoy Shri Guru Gobind Singh

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  संत सिपाही श्री गुरु गोविंद सिंह

           भारत कई महान नेताओं और क्रांतिकारियों का घर रहा है जिन्होंने देश के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।इनमें संत सिपाही गुरु गोबिंद सिंह एक ऐसे नेता के रूप में उभरे हैं जिन्होंने न केवल अपने लोगों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि उन्हें एक नई पहचान और उद्देश्य भी दिया।  भारत के पटना में 1666 में जन्मे गुरु गोबिंद सिंह सिखों के दसवें और अंतिम गुरु थे।वह एक दूरदर्शी नेता थे जिन्होंने धर्म की अवधारणा को फिर से परिभाषित किया और सिखों का एक नया आदेश बनाया जो न केवल योद्धा बल्कि संत भी थे।

             आपका जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था। आपके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी थी।छह वर्ष की आयु में ही वे अपने द्वारा बसाए गए नगर श्री आनंदपुर साहिब जिला रोपड़ में आ गए थे।

    प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

           गुरु गोबिंद सिंह का जन्म गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी से हुआ था।उनके पिता एक श्रद्धेय आध्यात्मिक नेता थे जिनका सिखों के बीच महत्वपूर्ण अनुसरण था।  हालाँकि उनका जीवन छोटा हो गया था जब उन्हें मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा इस्लाम में परिवर्तित होने से इंकार करने पर मार डाला गया था।गुरु गोबिंद सिंह केवल नौ वर्ष के थे जब वे सिखों के गुरु बने।

    एक प्रतिभाशाली बालक 

            अपनी कम उम्र के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह एक प्रतिभाशाली बालक थे जिन्होंने साहित्य, संगीत और मार्शल आर्ट में गहरी रुचि दिखाई।उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की और बाद में अपने समय के प्रसिद्ध विद्वानों और योद्धाओं के संरक्षण में अध्ययन करने चले गए।वह हिंदी, पंजाबी, संस्कृत और फारसी सहित कई भाषाओं के अच्छे जानकार थे।

           नौ वर्ष की आयु में लाहौर के हरीयश की कन्या जीतो से इनका पहला विवाह हुआ। अठारह वर्ष की आयु में इनका दूसरा विवाह राम शरणम की लड़की सुंदरी से हुआ। पहली पत्नी जीतो से उनके दो पुत्र हुए- जोरावर सिंह और जुझार सिंह। दूसरी पत्नी से अजीत सिंह और फतेह सिंह पैदा हुए।

        औरंगजेब के अत्याचार 

                  उन दिनों मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ रहे थे। वह तलवार के जोर से हिंदुओं को मुसलमान बना रहा था। उसके अत्याचार से दु:खी होकर कुछ कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी के पास आए।उन्होंने गुरुजी से रक्षा के लिए प्रार्थना की और कहा जब तक कोई पुण्यात्मा अपना बलिदान नहीं देगी तब तक हम पर मुसलमानों के जुल्म बंद नहीं होंगे।उस समय बालक गोविंद राय वहां उपस्थित था।

               वह बोला,"इस युग में आप से बढ़कर और पुण्य आत्मा कौन हो सकती है।"बालक की बात सुनकर पिता का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया।उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि वह उनकी रक्षा के लिए अपना बलिदान देंगे।अंततः दिल्ली के चांदनी चौक में अपना बलिदान देकर धर्म की रक्षा की।

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        प्रारंभिक संघर्ष

               गुरु गोबिंद सिंह को एक ऐसा समुदाय विरासत में मिला था जो मुगल शासकों द्वारा उत्पीड़ित और हाशिए पर था।  सिखों को मुस्लिम शासकों द्वारा एक खतरे के रूप में देखा जाता था जो उन्हें अपने अधिकार के लिए एक चुनौती के रूप में देखते थे।सिखों को अक्सर सताया जाता था और उनके धार्मिक स्थलों को नष्ट कर दिया जाता था।गुरु गोबिंद सिंह जानते थे कि उन्हें अपने लोगों और उनके जीवन के तरीके की रक्षा के लिए कुछ करना होगा।

        एक ऐतिहासिक घोषणा

                1699 में गुरु गोबिंद सिंह ने आनंदपुर साहिब में अपने अनुयायियों की एक सभा का आयोजन किया।जहाँ उन्होंने एक ऐतिहासिक घोषणा की।  उन्होंने घोषणा की कि उस दिन से सिखों को खालसा के नाम से जाना जाएगा। जिसका अर्थ है शुद्ध।

        पुकार का जवाब 

              उन्होंने अपने अनुयायियों से आगे आने और उन्हें अपना सिर भेंट करने के लिए कहा।पाँच लोगों ने उसकी पुकार का जवाब दिया और वे खालसा के पहले सदस्य बन गए।गुरु गोबिंद सिंह ने तब उन्हें अमृत, चीनी और पानी के मिश्रण से बपतिस्मा दिया और उन्हें उपनाम सिंह दिया। जिसका अर्थ शेर होता है।

        एक क्रांतिकारी कदम

              यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने सिखों को एक नई पहचान और उद्देश्य दिया। वे अब एक निष्क्रिय समुदाय नहीं थे जो उत्पीड़ित होने से संतुष्ट थे।वे अब योद्धाओं का एक समुदाय थे जो अपने अधिकारों के लिए लड़ने और अपने जीवन के तरीके की रक्षा करने के लिए तैयार थे।

        पिता का बलिदान

               पिता के बलिदान के साथ ही नौ वर्ष के बालक को गुरू पद ग्रहण करना पड़ा। पिता के बलिदान का औरंगजेब से बदला लेने के लिए गुरु जी ने अपनी शक्ति को बढ़ाना शुरू कर दिया। पहाड़ी राजा इससे भयभीत होकर इनसे ईर्ष्या करने लगे ।वह ऐसे अवसरों की तलाश में रहने लगे कि गुरु गोविंद सिंह जी को नीचा दिखा कर उनकी शक्ति को कम किया जा सके। कहलूर का राजा भीम चल गुरु गोविंद सिंह जी से विशेष रूप से वैर रखता था। भंगानी नामक स्थान पर उस से युद्ध हुआ। उसमें गुरु जी की विजय हुई।

        सन् 1699 वैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब में सिखों का एक बारी सम्मेलन

              सन् 1699 वैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब में सिखों का एक बारी सम्मेलन हुआ। गुरुजी ने पांँच व्यक्तियों को अपना बलिदान देने के लिए पुकारा। एक-एक करके पांचो वीर -दयाराम, धर्मदास, मोहकमचंद, साहिबचंद्र तथा हिम्मतचंद्र गुरु जी की आज्ञा से आगे आए। गुरु जी ने उन्हें तंबू में ले गए और रक्त भरी तलवार लेकर बाहर आए तो लोगों को ऐसा आभास हुआ कि इन पांँचों वीरों ने अपना बलिदान दे दिया है परंतु ऐसा नहीं हुआ ।कुछ समय पश्चात गुरु जी तंबू से उन पांचों व्यक्तियों को अपने साथ बाहर ले आए।उन्हें पंज प्यारे की संज्ञा दी।पहले गुरु जी ने उनको खालसा पंथ में दीक्षित किया और फिर उनसे अमृत छका। इस प्रकार उन्होंने खालसा पंथ की नींव रखी।

        खालसा

              खालसा सिखों का एक नया आदेश था जो न केवल योद्धा बल्कि संत भी थे।गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा के लिए एक सख्त आचार संहिता रखी, जिसमें विश्वास के पांँच लेख पहनना शामिल था,जिसे पांँच के के रूप में जाना जाता है।ये केश (बिना कटे हुए बाल), कंघा (एक लकड़ी की कंघी), कड़ा (एक स्टील का कंगन), कचेरा (सूती अंडरवियर) और किरपान (एक तलवार) थे।  पांच के ने खालसा की अपनी आस्था के प्रति प्रतिबद्धता और उसकी रक्षा के लिए उनकी तत्परता का प्रतीक है।

               गुरु गोबिंद सिंह ने कई भजनों और प्रार्थनाओं की भी रचना की जो सिख धार्मिक प्रथाओं का एक अभिन्न अंग बन गए।उन्होंने अपने अनुयायियों को ध्यान का अभ्यास करने और दूसरों की सेवा का जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित किया।उनका मानना ​​था कि खालसा केवल योद्धाओं का समुदाय नहीं है बल्कि संतों का भी समुदाय है जो मानवता की सेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं।

        गुरु जी का संगठन करके अपनी शक्ति को बढ़ाना

              अब गुरु जी संगठन करके अपनी शक्ति बढ़ाने लगे ।इससे औरंगजेब और अधिक क्रोधित हो उठा ।फलस्वरुप उसने लाहौर और सरहिंद के सुबेदारों को गुरुजी पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। इन सभी ने मिलकर आनंदपुर साहिब को घेर लिया।

             मुगल सेना अनेक प्रयत्नों के बाद भी किले पर विजय पाने में असफल रही। औरंगजेब ने गुरु जी को संदेश भिजवाया कि यदि गुरु जी आनंदपुर साहिब का किला छोड़ कर चले जाते हैं तो उनसे युद्ध नहीं किया जाएगा। गुरु जी थोड़े से सिख सैनिकों के साथ बाहर निकले। बाहर निकलते ही मुग़ल सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। सिरसा नदी के किनारे भयंकर युद्ध हुआ। सिख सैनिक बहुत कम मात्रा में थे परंतु फिर भी उन्होंने मुगलों से डटकर मुकाबला किया। 

                गुरुजी युद्ध करते हुए चमकौर साहब की ओर बढ़ने लगे।उस समय दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह तथा जुझार सिंह उनके साथ थे लेकिन गुरु जी के दोनों छोटे पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह तथा माताजी उनसे बिछड़ गए।चमकौर साहिब पहुंँचकर गुरुजी ने अपने दोनों बड़े पुत्रों के साथ गढ़ी में मोर्चा संभाल लिया तथा मुगल सेना से टक्कर ली। 

        चमकौर का युद्ध

               अपने गठन के शुरुआती वर्षों में खालसा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा।मुगल शासकों ने खालसा को अपने अधिकार के लिए खतरे के रूप में देखा और उन पर कई हमले किए।खालसा द्वारा लड़ी गई सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक 1704 में चमकौर की लड़ाई थी।गुरु गोबिंद सिंह और उनके अनुयायियों का एक छोटा समूह एक बड़ी मुगल सेना से घिरा हुआ था।सिखों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी और बहुत अधिक संख्या में होने के बावजूद वे मुगल सेना को भारी नुकसान पहुँचाने में कामयाब रहे।

                लड़ाई के दौरान गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े बेटे अजीत सिंह और जुझार सिंह मारे गए।गुरु गोबिंद सिंह की मां और दो छोटे बेटों को भी मुगलों ने बंदी बना लिया था।इन नुकसानों के बावजूद गुरु गोबिंद सिंह अपने उद्देश्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहे।  उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रेरित करना जारी रखा और स्वतंत्रता और न्याय के लिए उनके संघर्ष में उनका नेतृत्व किया।

        परंपरा

             गुरु गोबिंद सिंह की विरासत अपार है।उन्होंने न केवल सिखों को एक नई पहचान और उद्देश्य दिया बल्कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने और अपने जीवन के तरीके की रक्षा करने के लिए भी प्रेरित किया।उनकी शिक्षाएं दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं और उनके भजन और प्रार्थनाएं सिख धार्मिक प्रथाओं का एक अभिन्न अंग हैं।

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        गुरु जी से दोनों छोटे पुत्रों  का बिछड़ा 

                गुरुजी से बिछड़े हुए दोनों छोटे पुत्र फतेह सिंह और जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ भटकते हुए रसोइए गंगू के गांँव चले गए ।वहां लालची गंगू ने दोनों पुत्रों को सरहिंद के नवाब वजीर खां को सौंप दिया। उसने उन्हें मुसलमान बनने के लिए कहा। उनके इंकार करने पर उन्हें जिंदा ही दीवारों में चिनवा दिया गया।

        गुरु जी मालवा प्रांत में

                इसके पश्चात गुरु जी मालवा प्रांत पहुंँचे। यहां नीए नामक गांँव से गुरुजी ने औरंगजेब को फारसी में लिखा एक पत्र भेजा जो कि 'जफरनामा'नाम से प्रसिद्ध है ।जिसमें गुरुजी ने औरंगजेब को उसकी धर्मांधता, क्रूरता ,कट्टरता एवं अत्याचारों के लिए बहुत ही फटकार डाली। सरहिंद के नवाब की सेना अभी गुरुजी का पीछा कर रही थी। तब गुरु साहिब ने खिदराना जंगल की एक ऊंची पहाड़ी पर अपना मोर्चा स्थापित किया।चालीस सिख जो गुरु जी को आनंदपुर में छोड़ गए थे फिर पश्चाताप सहित गुरुजी की शरण में पहुंँच गए।

                यहां गुरुजी का शत्रु से जमकर युद्ध हुआ ।एक- एक करके सभी सिख सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। गुरु जी ने टीले से नीचे उतरकर मुगल सेना से लोहा लिया, मुगल सेना पराजित होकर वहां से भाग निकली।गुरु जी की सहायता के लिए आए हुए चालीस योद्धाओं में से केवल एक महासिंह बचा था ।वह बुरी तरह से घायल था ।उसकी प्रार्थना को स्वीकार करके गुरु जी ने उनका वेदाबा फाड़ दिया। गुरू साहिब ने इन वीरों को चालीस  मुक्तों की उपाधि प्रदान की। उस स्थान को आज मुकतसर कहते है।

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        गुरु साहिब खान देश में

              तत्पश्चात गुरु साहिब खान देश पहुंँचे और नानदेड़ में गोदावरी के किनारे पर रहने लगे। यहां पर उनका संपर्क माधव दास बैरागी से हुआ। उसने गुरु जी की शिष्यता ग्रहण कर ली।गुरुजी ने उसका नाम बंदा सिंह बहादुर रखा।जो बाद में बंदा बैरागी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने विशाल सेना एकत्रित करके सरहिंद पर आक्रमण करके सरहिंद के नवाब वजीर को मारकर गुरु जी के बच्चों के हत्यारों को दंड दिया।

        गुरू जी की प्रमुख रचनाएं- 

             प्रमुख रचनाएं- इन्होंने हिंदी कवियों को वीर रस की कविता करने की प्रेरणा दी तथा स्वयं भी वीर रस की कविताएं लिखी- रामावतार, कृष्णावतार, चंडी चरित्र तथा विचित्र नाटक आदि प्रमुख रचनाएं हैं।'जफरनामा' फारसी में लिखित इन की प्रसिद्ध रचना है। गुरुमुखी लिपि में इन रचनाओं का संग्रह 'दशम ग्रंथ' है।

          गुरू जी नांदेड़ में

             नांदेड़ में ही एक रात को सोते हुए गुरुजी के पेट में दो पठानों ने घात लगाकर छुरा घोंप दिया।यह दोनों पठान पूंजी के सैनिक थे।यद्यपि घाव बहुत गहरे थे लेकिन गुरु जी बच गए।बाद में बहादुर शाह द्वारा भेजे गए धनुष पर चिन्ना चढ़ाते समय उनके घाव के टांके टूट गए।

               फलत: सन् 1708 ई० में गुरु जी ज्योति ज्योत समा गए। लेकिन अपनी मृत्यु से पूर्व वह एक महान कार्य और कर गए। गुरु जी ने अपनी दूरदर्शिता दिखाते हुए गुरु प्रथा समाप्त कर दी और श्री गुरु ग्रंथ साहब को गुरु का स्थान दिया।

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